आपको 24 फरवरी की वो काली
दोपहर तो याद होगी ? जी हां काली दोपहर ! शायद आप में से कुछ लोग इस बात से बेखबर होंगे कि 24 फरवरी को क्या हुआ था ? तो चलिए मैं
आप सभी को बताता हूं यह वही काला दिन था जब दिल्ली में दंगों की आग ने दिल्ली के
जमनापार को झुलसा दिया था।
वैसे तो अब जमनापार का
माहौल शांत है लेकिन आज जब मैं बैठा था तो मेरे मन में आया कि मैं आपके समक्ष उस
काली दोपहर से जुड़ी कुछ बाते रखू जिन्हें मैंने बेहद करीब से देखा तो चलिए बिना
समय व्यर्थ किए मैं आपको उस काली दोपहर से शांति भरी दोपहर तक का पूरा चिट्ठा
सुनाता हूं।
बात 24 फरवरी (2020) की
दोपहर की है जब करीब 3 बजे मेरे फोन की घंटी बजी जब मैंने देखा कि मेरे घर से फोन
आया है तो मैं घबरा गया कि कही कोई अनहोनी ना घट गई हो। सुबह से मन में बैचेनी थी और
खबरों से भी एक दूरी सी बनी हुई थी और हुआ भी कुछ ऐसा ही जब मैंने फोन उठाया तो घरवालों की आवाज
में एक डर सा महसूस हुआ।
मैंने पुछा कि क्या हुआ ? तो दूसरी तरफ से आवाज आई कि
तू जहां भी है वहीं रहना क्योंकि हमारे घरों की तरफ दंगे भड़क गए है और चारों तरफ
आग ने अपने पैर पसार रखे है। इतना सुनते ही मैं स्तबध था मेरे पास कहने के लिए
शब्द नहीं थे। मैंने अपने दुखी मन के साथ जवाब दिया कि आप सभी अपना ध्यान रखना।
यह सिलसिला रात को सोने तक
चलता रहा, लगातार खबरें आ रही थी कि यहां आग लग गई, अरे गोलियां चल रही है, हे राम कई लोग
घायल हो गए और शाम तक दिल्ली में गृह युद्ध सा छिड़ गया था चारों तरफ आग लगी हुई थी
और घर जाने के लिए सारी राह बंद हो चुकि थी।
लोगों की कतार पैदल चल रही थी तो मैंने भी पैदल जाने में ही भलाई समझी, मैंने मेट्रों से करीब 4 किलोमीटर
का पैदल सफर तय किया और जैसे तैसे अपने घर के पास पहुंचा तो रोड के दोनो तरफ आग
भड़की हुई थी।
किसी समय पर एक दूसरे के
त्यौहारों में शरीक होने वाले भाई एक दूसरे को मारने पर उतारू थे, मैंने अपने दोस्त
को फोन करके बुलाया और वो मुझे अपने घर लेकर चला गया इसके बाद
मैंने फिर अपने घर पर फोन किया कि क्या मैं आजाऊं ? तो घर वालों का जवाब था कि तू जहां हैं वहीं
सुरक्षित हैं तो आज वहीं रूक जा कल जब दंगे शांत होंगे तो घर आ जाईयों।
लेकिन यह कोई आम आग थोड़ी
थी जो इतनी जल्दी बुझ जाती, रात भर जब भी झपकी लगती तो आग की लपटों की गरमाहट भरे
सपने नींद तोड़ देते। रात भर नींद से मेरी जंग चलती रही और जैसे-तैसे झपकी लगी और जब सुबह-सुबह आंख खुली तो खबर मीली की दंगे और भड़क गए
है और अब तो गोलियां भी चल रही है, परंतु सिलसिला यहीं कहां शांत होने वाला था
एकाएक मरने वालों का आंकड़ा बढ़ने लगा और 'हक' की लड़ाई 'धर्म' की लड़ाई में तब्दील हो गई।
अब मरने वाला इंसान नहीं था
अब वो मांस और हड्डी का पुतला हिंदु-मुस्लमान बन गया था। इसके बाद शाम को खबर आई
कि जमनापार के सभी इलाकों में कर्फयू लग गया है लेकिन ये धर्म की लड़ाई अभी कहां शांत होने वाली थी।
सिलसिला फिर भी भड़का रहा और अंत में जब देखते ही गोली
मारने के ऑर्डर आए तब कहीं जाकर यह मामला शांत हुआ।
रात सुकुन में बीती एक नई
सुबह की किरणों ने दिल्ली के जमनापार ईलाके से डर के साये को भगाया लेकिन मामला
अभी रूका नहीं था, मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही थी और इन हालातों
को देखकर मन में गुस्सा था।
गुस्सा इसलिए नहीं था कि मरने वाला हिंदु था या
मुस्लमान बल्कि गुस्सा इस बात का था कि इन दंगों की भेट वो चढ़े थे जो
हिन्दु-मुस्लमान होने से पहले किसी के बेटे, भाई, पिता और सुहाग थे।
हमारी दिल्ली जो देश की
राजधानी है देश के सभी बड़े-छोटे फैसले जहां लिए जाते है वो दिल्ली आग की लपटो में
जल रही थी और जिन लोगों की वजह से जल रही थी वो पहले ही अपने परिवार को सुरक्षित जगहों पर
लेकर बैठकर इस बंदर बाट का लुफ्त उठा रहे थे, अब मरने वाला हिंदु या मुस्लमान नहीं था बल्कि कुदरत का बनाया हुआ सबसे अदबुत 'नूर' इंसान था।
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